पतझड़ के वो पत्ते

आज कॉलेज से घर जाते वक्त सड़क पर पड़े सूखे पत्तों को देखा तो पता चला पतझड़ आ गया है। सर्दियां पूरी तरह से जा चुकी है और मौसम में गर्माहट होनी शुरू हो गई है। यूंही पत्तों को निहारते मेरी नज़र ऊंचे खड़े सूखे पेड़ों पर पड़ी मानो वो मुझसे कुछ कहना चाह रहे हो। दो सूखी टहनियां मानो जिंदगी का सार बता रही हों। उन पेड़ों को छुआ तो वो सूखे सूखे से थे जैसे शोक में डूबे हों पर कुछ देर ठहरने के बाद मैने जाना कि सिर्फ ऊपरी परत सूखी थी और अंदर से वो अभी भी नर्म थे। इससे मैने जाना कि वो पेड़ दुखी तो हैं पर अंदर से बैसाख के इंतजार में हैं। उन पेड़ों से पांच मिनट की मुलाकात ने मेरा दिन उम्मीद से भर दिया। मुझे जीवन में एक किरण दिखाई दी कि चाहे वक्त कितना भी खराब क्यों न हो उस पर उदास होना गलत नही है पर अंदर से उम्मीद हमेशा रहनी चाहिए कि सब ठीक हो जाएगा। जैसे पेड़ बाहर से कितने भी सूखे न हों उनके अंदर की नर्माहत उन्हे जिंदा रखती है और जब वो नर्माहट खतम हो जाती है तो पेड़ मार जाता है वैसे ही मनुष्य के अंदर से जब उम्मीद खतम हो जाती है तो वो मर जाता है और उसके जीवन का कोई मतलब नहीं रह जाता।